शुक्रवार, जुलाई 01, 2011

जून की होती जब टीक दोपहरी

         तितली

जून की होती जब टीक दोपहरी,
हाथ में लिए हुए रुखरी,
जाते जब हम क्यारी में,
उस घेर की बगिया प्यारी में,
जिस में न थे विशेष फूल,
कुछ थे पोधे कुछ थी धुल,
रंग-बिरंगी तितली आती,
अपने पीछे हमें भागाती,
हमको थी वो खूब थकाती,
घंटों तक फिर भी हाथ न आती,
पैर उलझता झुंडों में जब,
हम धम्म से गिर जाते,
तितली बैठती फूलों पे जब,
हम अपना फिर वार चलाते,
पकड़ भी लेते पीली -सफेद,
लाल का होता हमको खेद,
मुश्किल से जब आती हाथ,
मन ही मन हम हर्षाते,
सब बच्चों को उसे दिखाते,
किया हो जैसे बड़ा कोई काम,
आकर देगा कोई इनाम,
तितली पीली- सफेद और लाल ,
न दिखाई देती हैं अब सालों - साल,
जून की होती है जब टीक दोपहरी...... जितेंदर कुमार मोहना (बिट्टू )

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